SATSANG
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SATSANG | RADHA SWAMI SATSANG BYAAS |
'RADHA SWAMI SATSANG,
सच्चा सत्संग कैसा होता है
SATSANG
साध संगत जी, 'सत्संग, एक ऐसा स्थान है, जहां पर जाकर हमारे अंदर अपने आप ही मालिक के बारे में बातें सुनकर मालिक की महिमा सुनकर, अपने आप ही उससे मिलने का शौक पैदा होता है, उससे मिलने की तड़प पैदा होती है,महात्माओं का सत्संग सिर्फ और सिर्फ मालिक की महिमा ही करता है, संतों के सत्संग में कभी भी किसी की निंदा, चुगली, बुराई नहीं की जाती। महात्माओं के सत्संग में किसी और के बारे में बातें नहीं बल्कि मालिक के बारे में ही चर्चा होती है।
इस तरह संत महात्मा हमें हर तरह के भ्रम से निकालकर सिर्फ एक और अकाल पुरुष से मिलने के लिए, हमारे अंदर शौक पैदा करते हैं। इसी शौक की वजह से हम और ज्यादा सत्संग सुनने लगते हैं और मालिक के लिए हमारे अंदर दिन-ब-दिन तड़प पैदा होती जाती है, जैसे-जैसे तड़प बढ़ती है वैसे वैसे ही हमारे अंदर प्रेम और ज्यादा जागृत होता जाता है, और महात्मा अक्सर यही समझाते हैं, जिन प्रेम कियो तिन ही प्रभु पायो, जो मालिक से प्रेम करते हैं, वही उसको पा सकते हैं।
सत्संग सुनते सुनते एक ऐसी अवस्था आती है जहां पर हम नाम लेने की इच्छा प्रगट करते हैं, कि हमें किसी ना किसी तरह नाम मिल जाए हमें सतगुरु अपना ले और हमसे नाम भक्ति करवाने के लिए हमें नाम की दात बख्श दें, इस तरह जब सतगुरु दया मेहर करते हैं हमें नाम की दात जब दे देते हैं तो वह एक ऐसा दिन होता है जो हमारे लिए सबसे बड़ा सौभाग्यशाली होता है, क्योंकि इस दिन एक ऐसी विधि के बारे में हमें पता चलता है जिस पर चलकर हम मालिक से वापस मिल सकते हैं, एक नाम ही ऐसी जुकती है जिसको कर हम मालिक से मिल सकते हैं। इस तरह जैसे-जैसे एक सच्चा जिज्ञासु सच्चा शिष्य नाम का अभ्यास करता है। उसे अपने अंदर से मालिक के होने का एहसास होता है। क्योंकि संत महात्मा अक्सर समझाते हैं अगर मालिक किसी को मिलेगा तो वह उसके अंदर से ही मिलेगा हम चाहे बाहर कितना भी उसे ढूंढ ले, वह हर जगह होता हुआ भी हमें नहीं मिल सकता, क्योंकि कुदरत का कानून ही एक ऐसा है, कि हम उसे अपने अंतर में पहचान सकते हैं। संत सतगुरु ने खुद कमाई की होती है उनका खुद का अनुभव ही हमें नाम मार्ग पर लाता है। संतों ने मालिक से मेल किया होता है,
इसलिए जिस तरह की भक्ति वह खुद करते हैं वही अपने शिष्य को करने के लिए कहते हैं। इसलिए जब भी मालिक मिलता है,एक अभ्यासी को अपने अंतर से मिलता है। अपने मन को सच्ची साधना में लगाकर अपने मन से सभी तरह के विषय विकारों को निकालकर काम क्रोध मोह लोभ अहंकार जैसे सभी विकारों को जब धीरे-धीरे अभ्यास के जरिए अभ्यासी दूर कर लेता है। तब उसे अपने अंदर मालिक की पहचान होने लगती है। जैसे जैसे दुनिया की तरफ से अपना ख्याल कम करता जाता है। वैसे वैसे उसका मालिक के साथ और ज्यादा प्रेम गहरा होता चला जाता है। संत कभी यह नहीं कहते कि तुम दुनियादारी छोड़ दो संत कहते हैं, कि तुम दुनिया में ही रहो लेकिन इसके अंदर इतना मत लीन हो जाओ कि अपने असली मकसद को ही भूल जाओ, हमारा असली मकसद क्या है कि हम अपने आप को इस 84 के चक्कर से छुड़ा सकें, क्योंकि यह एक ऐसा महासागर है जिस से निकलना नामुमकिन है, लेकिन मनुष्य जामा ही सबसे उत्तम जामा है। जिसमें हम बैठकर मालिक की प्राप्ति कर सकते हैं। इस तरह साथ संगत जी संत महात्मा जब नाम के साथ जोड़ देते हैं, तो शिष्य का फर्ज बनता है कि हर रोज बिना नागा डाले सतगुरु का कहा मान कर अपना भजन सिमरन का अभ्यास करें।
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